Sunday, February 6, 2011

सूरज का खेल

सूरज रोज़ नयी तय्यारी के साथ
पहाड़ के पीछे से उगता है रोज़
दिनभर खूब घूमता है,
खूब खेलता है
लुका छिप्पी उसका पसंदीदा खेल है
कभी पेड़ की आड़ में छिपता है
तो कभी बादल में जाकर खुदको गुमा देता है
सूरज कभी कभी नाराज़ भी हो जाता है
नाराज़गी में चमड़ी से पसीना निकल लेता है
बच्चे को भी रुला देता है
और बड़े को भी
सूरज दिनभर खूब खेलता है
थकने पर उसी पहाड़ के पीछे जा कर सो जाता है
जहाँ से सुबह आता है
फिर अगले दिन नयी तय्यारी के साथ आने के लिए ...............

1 comment:

  1. शांति इस कविता को थोड़ा और टाइट करो...शब्दों की फिजूलखर्ची क्यों, कुछ शब्दों के बिना भी काम चल सकता है।

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