Thursday, March 10, 2011

और अचानक एक दिन

और अचानक एक दिन
तुम थी नहीं मेरे पास
सुबह हर रोज़ की तरह तुमने मुझे जगाया ही नहीं
कितना खोजा था मैंने तुमको
अपने बिस्तर की सिलवटों में
तुम्हारी कंघी में भी खोजा था
जिसमे तुम्हारे बाल फस गए थे
और तुमने झटक कर फेक दिया था दूर उसे
मैं नहीं जनता था एक दिन तुम झटक दोगी वैसे ही मुझको भी
मैंने तुमको बगीचे के फूलों में भी खोजा था
जिनको रंग और महक देने जाती थी तुम हर सुबह
तुम नहीं थी वहां भी
तुम चली गयीं मुझे छोड़ कर उस रोज़ चुपके से
सोचा भी नहीं क्या होगा मेरा
बस चली गयीं तुम यूँ ही
मंदिर की देवी की तरह पूजता हूँ आज भी तुम्हे हर पल
तुम्हारी तस्वीर पर रोज चढ़ाता हूँ ताजे फूल
उन पौधों के जिनको तुमने रोपा था मेरे आँगन में
यह कहकर की यह मह्कायेंगे हमारा जीवन
पर अब वह फूलों की डाली भी मुरझाने लगी है
हर रोज़ तुम्हारे आने की बाट जोहता है वह पौधा
जिसे तुमने रोपा था अपने हाथों से
और अचानक एक दिन .......

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