Thursday, March 10, 2011

मातृत्व का एहसास

रोज़ की तरह
मैं आज भी जा रहा हूँ
अपने उसी रास्ते से,
जिस रास्ते पर बैठती है एक बढ़ी "माँ
उसकी झुर्रियों वाली गोदी में चिपका रहता था उसका "लाल",
अपने खुरदरे हाथो से
वह माँ रोज़ अपने लाडले को देती थी मातृत्व का स्पर्श
एहसास कराती थी उसे कि वह उसकी "माँ" है
अभी कल ही तो उसने छीना था एक अमरुद
उस ठेले वाले से जो रोज़ गुजरता था उधर से
उसने खुद नहीं खाया था उसे
बल्कि वार दिया था उस फल को अपने "लाल" पर
उसी पेड़ के नीचे जहाँ वह रोज़ होती थी
आज वहां पर पड़ा है उसका निर्जीव शरीर
और उसका "लाल" सहला रहा है उसके
उन्ही झुर्रीदार हाथो को
जिनसे वह रोज़ कराती थी अपने "लाल" को
मातृत्व का एहसास.............

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